नैनों की भाषा

मरूभूमि सी वीरान कभी, कभी उपवन सी सुंदर दिखती है। कल-कल बहता झरना कभी, कभी चट्टानो सी तपती है। कभी ममता की मूरत बन, ये प्रेम सुधा बरसाती है। इसके आँचल की छाव तले, धरती स्वर्ग बन जाती है। मूक भी खाशी का रूप धर, हर बात बयाँ कर जाती है। बिन कहे एक भी शब्द, मन की मनसा दर्शाती है। जब रुद्रा रूप धारण करती, ये अग्नि कुंड बन जाती है। दुश्मन पर तीखे वार कर, ये महाकाल कहलाती है। कभी प्रेम रस की वाणी बन, मधुर मिलन करवाती है। इज़हारे मोहब्बत कर देती जब जुबां शिथिल पड़ जाती ...

बारिश के बाद

तेज वर्षा ने अभी-अभी धरा को नहलाया है, धरती के हर अंग को स्वर्ण सा सजाया है। फूलों ने चंद बूँदे अपने आँचल में समेटी हैं, पत्तों ने बूँदों की चादर चारों ओर लपेटी है॥ दूर छत से पानी टॅप-टॅप नीचे गिरता है, विहग का एक झुंड सैर को निकलता है। नदी और नाले सर उठा हुँकार भरते हैं, पेड़ की आड़ छोड़ पथिक आगे को बढ़ते हैं।। नन्ही चिड़िया पँखों को झटक खुद को सुखाती है, खुशी से झूमती कोयल मधुर गीत गाती है। एक हवा का झोंका जब पेड़ से टकराता है, लगता है मानो पानी फिर से ...

मेरी आवाज़

• व्यंजन हूं, नव व्याकरण दो मुझे, शब्द हूं, सत्य का आचरण दो मुझे, वेदना देवकी माँ की कान्हा में है, गीत हूं कृष्ण का, अवतारना दो मुझे। ‘राजीव राज’ • सिसकियां अब कौन सुनता है हवा के शोर में, जम चुका है गर्म पानी भी नयन के कोर में, आज उसका लाड़ला भी सो जायेगा चैन से, बाँध लायी है चने वो ओढ़नी के छोर में। ‘राजीव राज’ • कोशिश अब रंग लाने लगी है, मुझको मंजिल नज़र आने लगी है। जिनकी हसरत थी मुझको सतत, उनको भी अब मेरी याद सताने लगी है। इस तरह पा के थोड़ी ...