ओशो कहते है-

तुम जिनके बीच पैदा होते हो वे सब दुख से भरे हुए लोग…. माँ देखो तो दुखी है, बाप देखो तो दुखी है, भाई देखो तो दुखी है। जो देखो वह दुखी है। हर आदमी जहां है वहीं दुखी है। चारों तरफ दुख ही दुख दिखाई पडता है। एक बात उसे समझ में आ जाती है कि यहां दुखी होना ही जीने का ढंग है। यही जीवन की प्रणाली है, यही जीवन का दर्शन है।

उसे ये बात भी समझ आ जाती है कि सुखी होने को लोग पसंद नही करते। अगर तुम दुखी हो तो सब सहानुभूति जताते हैं; अगर तुम सुखी हो तो लोग ईर्ष्या से भर जाते हैं। सुखी आदमी बर्दाश्त नहीं किया जाता। दुखी आदमी को लोग खूब आदर देते हैं। दुखी आदमी में एक खूबी है, कि वह हर एक की सहानुभूति का पात्र होता है। और जब भी किसी को तुम मौका देते हो सहानुभूति दिखलाने का, तो उसको मजा आता है, उसके अंहकार को तृप्ती मिलती है‌‌- कि हम ऊपर, तुम नीचे; हम देने वाले, तुम लेने वाले

तो बच्चा बहुत जल्दी यह तरकीब, यह राजनीति, यह कूटनीति सीख लेता है। फिर वह दुख का खेल करने लगता है। भीतर से हंसी भी आ रही हो तो रोकता है। क्योंकि जब भी खिलखिलाता है, तभी डांटा जाता है। जब भी रोता है, तभी प्यार किया जाता है। जब भी हंसता है, तभी दुत्कारा जाता है। जब भी खेलता है, उछलता है, कूदता है, नाचता है‌‌‌– तभी डांट! कि बंद कर! बैठ एक जगह! शांति से बैठ! और जब उदास बैठा हो तो माँ पुचकारती है, बाप पुचकारता है। कोई मिठाई देता है, कोई खिलोना पकडाता है। मुहल्ले वाले तक, आस-पडोस के लोग भी गोबर-गणेश बच्चों को, बैठे हैं उदास तो थपकी मारते है कि बेटा, क्या हो गया? काहे इतने उदास? कोन सी चिंता तुम्हे सता रही है? और सहानुभूति में एक रस है। मजा आता है। ऐसा लगता है लोग प्रेम कर रहे हैं। इस तरह धीरे-धीरे दुख हमारे जीवन की भाषा हो जाती है।“

  • अव्यावहारिक रूप से ऊंची महत्वाकांक्षा, तनावग्रस्त मनोदशा, निराशा, प्रेम पाने की अभिलाषा या प्रेम में मिली अस्वीकृति बीमारी को आकर्षित करती है।
  • उलझी मन-ग्रंथि, दुख, क्रोध, भय, जीवन की बुरी स्मृतियां आत्म-विध्वंसात्मक हैं, ये बीमारी को बढाती हैं।
  • घर-परिवार अथवा कार्यस्थल की परेशानी, कलह व नापसंदगी बीमारी का कारण बन जाती है। हीनता या महानता की ग्रंथियां यानि इंफीरियॉरिटी या सुपीरियॉरिटी कॉम्प्लैक्स अहंकार के दो रूप हैं जो निरंतर कलह के कारण बनते हैं।
  • मदद लेने की अपमानजनक स्थिति, तलाक से लगी ठेस, मित्र द्वारा विश्वासघात या जीवन-साथी द्वारा दिल तोडना भी रोग का कारण बन सकता है।
  • परिवार का सामूहिक अचेतन मन परिवार की खुशी का संतुलअन बनाये रखने के लिये परिवार के किसी सदस्य विशेष की बिमारी चाह सकता है। अपने आलस्य को छिपाने या जस्टीफाई करने के लिये कोई तापसी मनुष्य खुद की बिमारी चाह सकता है।
  • अपने प्रियजनों से प्रेम पाने व निर्भर होने की चाह किसी बिमारी का निमंत्रण बन सकती है।
  • दूसरे को अथवा स्वयं को भी पीडा या सजा देने की भावना, अपराध-बोध भी बिमारी का स्वागत करता है।
  • रिटायरमैंट, बेरोजगारी, गरीबी. आत्म-सम्मान की कमी व बोरियत दूर करने का भाव बिमारी को निकट बुलाता है।
  • बीमारी और मृत्यु शरीर की उम्र विशेष में आयेगी ही, यह भ्रांतिपूर्ण सम्मोहन भी बिमारी की एक खास वजह है।

यदि कोई व्यक्ति ऊपरलिखित में से अपने भीतर के लक्षणों को पहचान लें तो बहुत सी बिमारियों को छोड कर स्वस्थ जीवन को चुन सकता है।

हर व्यक्ति अपनी मनो-स्थिति व सेहत के लिये खुद जिम्मेदार है।

अपनी वर्तमान स्थिति उसने स्वयं चुनी है।

अत: प्रत्येक को अपनी क्षमता व शरीर पर मन के प्रभावों का सही ज्ञान होना आवश्यक है।

अचेतन में दबे इन कारणों के प्रति सचेत होने से अचेतन नहीं रह जाते, सचेतन होते ही दूर हो जाते हैं।

जैसे किसी पौधे की जडें भूमिगत अंधकार में पनपती हैं,

उखाड कर प्रकाश में उनका निरिक्षण करने से वे नष्ट हो जाती हैं।

इसलिये अवलोकन मात्रा प्रयाप्त है अवचेतन से

उत्पन्न रोगों को खत्म करने के लिये।

भावी जीवन में इस तरह के मनोशारीरिक रोगों से बचाव,

नई विधायक कंडीशनिंग या संस्कार डालने से सम्भव है।

सम्मोहन विधि द्वारा यह काम बडी सुगमता से किया जा सकता है।

संकलन माँ ओशो एकांता, ओशोधारा