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मामला निबट गया

खड़बड़ाते पत्तों की आवाज़, पूस की सनसनाती पछुआ हवा, धड़धड़ाती रेल की पटरी और कान के पर्दों को दहलाती रेलगाड़ी की लम्बी सीटी। इन सब के आदी हो चुके कान आज कुछ असहज से थे। कभी लम्बी नींद आया करती थी इन सब के बीच पर नींद आज बिमार थी। बिल्ली के धीरे से चूहे पर वार करने की आहट भी सुनाई दे रही थी। रेलवे की पटरियों के किनारे पुल के नीचे, बीन कर लायी गई पॉलीथीन से बनी उस झुग्गी में, दस्सु चुपचाप लेटा था। वहीं जमीन पर बिछोने के ऊपर लेटी उसकी घरवाली भी बिल्कुल खामोश थी। वह अपनी कोख में घुटनों को घुसेड़े थी। आधी धोती को ओढ़े और आधी को लज्जा वसन बनाए वह सोने का अभिनय कर रही थी। अपलक दृष्टि जमाये वो अपने बगल में लेटे दोनों बच्चों को निहार रही थी या फिर हमेशा के लिए खाली हुए उस तीसरे बिछोने को, कहना मुश्किल है। लेकिन निश्चित ही वे दोनों मियां बीबी एक दूसरे को अपने सोये होने का अहसास कराना चाहते थे। बेमौसम बरसात की तरह आयी ये लम्बी रात, सोने का अभिनय करते-करते ही कटनी थी।

किराये का रिक्शा चला कर वो अपना, अपनी घरवाली और अपने बच्चों का पेट पालता था। अपने आठ महीने के बच्चे का, खिलने से पहले मुरझाये हुए फूल सा चेहरा देखकर दस्सु का कलेजा मुँह को आता था। ऑटो और थ्री व्हीलर के युग में रिक्शा चला कर जैसे-तैसे सबके लिए चन्द निवालों की जुगाड़ करता था, ऐसे में उस बदनसीब के लिए दूध की व्यवस्था करना दस्सु के वश में न था। कहते हैं कि मुसीबत कभी अकेली नहीं आती, अपनी सखी सहेलियों को भी साथ लाती है। उस दिन जब दस्सु के रिक्शे का पहिया रेलवे की पटरियों में फँस गया तो देखने वालों की तो आँखे ही बन्द हो गई थी। लेकिन ईश्वर ने उसे शायद मानवता के इतिहास में एक नयी इबारत लिखने के लिए बचा लिया। उसके पैर में काफी चोट आयी लेकिन वो बच गया। हाँ उसकी आजीविका का एकमात्र सहारा, उसका रिक्शा जरूर ट्रेन की टक्कर से अपना अस्तित्व खो बैठा, उसके परखच्चे उड़ गये थे।

अस्पताल से छुट्टी हुए दो महीने हो चुके थे। अब दस्सु अपने एक पाँव और लाठी के सहारे चलता था। उस दिन जब किसी ने दरवाज़े की सांकल खटखटायी तो लाठी के सहारे उछलते हुए ही उसने दरवाज़ा खोला। पुलिस वाले, अखबार वाले, टी वी वाले और पीछे-पीछे मोहल्ले भर की भीड़। उजड़ी हुई उदास लाल आँखों से उसने सबको एक बार देखा। “चलो गाड़ी में बैठो, कप्तान साहब ने तुम्हे बुलाया है।“ कड़कती आवाज़ में एक सिपाही ने हुक्म दिया। ड़ीo एमo आवास पर, जहां एसo एसo पीo सहित और भी आला अफसर बैठे थे, उसे पेश करते हुए सिपाही ने कहा, “सर! यही है वो कलयुगी बाप जिसने चन्द रुपयों की खातिर अपने एक नही दो-दो बच्चों को बेच दिया। जिस का अन्दाजा था वही हुआ। लेकिन उसके व्यक्तिगत मामले में इतना बड़ा बबाल क्यों हो रहा है। ये बात उसकी समझ में नहीं आ रही थी। तभी एक के बाद एक तोपें उसके ऊपर दाग दी गयी। “क्यों, क्या तुम्हारे अन्दर जरा भी इंसानियत नही”? उसने सम्भलते हुए अपना नाम बताया “दशरथ”। कुछ पलों के लिये मौन स्थापित हो गया। सब आवाक रह गये। एक बार फिर से दशरथ ने अपने कलेजे के टुकड़ों को खुद से दूर कर दिया। सबके मानस पटल पर रामचरित मानस चित्रित हो उठी। त्रेता में अपने वचन को निभाने के लिये दशरथ को अपने बेटे को बनवास भेजना पड़ा था परंतु इस दशरथ की क्या विवशता रही कि उसे अपने बेटों का निर्णय लेना पड़ा? तभी दस्सु ने मौन तोड़ा, “साहब मैं अपाहज उनके लिए दो जून के निवाले नहीं जुटा सकता। किसी सेठ की चाकरी करेंगे तो उनके पेट में अन्न तो पड़ता रहेगा साब। बेचने की बात में कोई तथ्य नही है साब। हाँ! सेठ जी ने मेरी दवा के इंतजाम की बात जरूर कही थी और घरवाली को कुछ कपड़ॆ लत्ते भी दे गये हैं माई बाप। मेरे पास कोई और रास्ता भी नही था साब, कोन सा ऐसा बाप है जो अपने जियायों को इत्ती सी उमर में काम के लिये अपने से दूर करेगा”। कहते-कहते उसकी आवाज भारी हो गयी। तभी उसके दोनों बच्चों को उनके खरीददारों के साथ लिये एक पुलिस वाले ने कक्ष में प्रवेश किया।

बन्द करो ये नौटंकी और चुपचाप अपने साथ ले जाओ इन बच्चों को। जब पैदा किये थे तब होश नहीं था कि कैसे निबाले जुटाओगे इनके लिये। हवलदार, निकालो इन सबको बाहर, ये पुलिस कप्तान की आवाज़ थी। ड़ीo एमo साहब से मुखातिब होते हुये वे बोले, “ये स्साले ऐसी नौटंकी फैलाते है कि बस….., सर आप मीड़ीया को बता दीजिये कि मामला निबट गया है। बच्चे उसके बाप को सोंप दिये गये हैं। पिछले तीन दिन से नाक में दम कर रखा है इन मीड़ीया वालों ने – पैसों की खातिर बाप ने बेटों को बेचा—–शासन प्रशासन मौन—–आदर्श शासन के दावे खोखले, मुफलिसी में बाप ने बेटों को बेचा……जिसे देखो वही पूछता है कि आखिर मामला क्या है?” मेज पर रखी मिनरल वॉटर की बोतल में से पानी निकालते हुये कप्तान साहब बड़बड़ाते हुये जा रहे थे। कल मंत्री जी भी कहने लगे कि “इलैक्शन सर पर है कप्तान साहब कुछ तो ख्याल कीजिये” डीo एमo साहब से मुखातिब होते हुये वो बुदबुदा रहे थे कि तभी, “तुम गये नहीं अभी तक?” दस्सु की ओर देख कर पुलिस कप्तान ने कड़क आवाज में पूछा। “इन्हे जी लेने दो साब। अपनी आँखों के सामने मरते देखूं इससे अच्छा है कि ये जहां है वहीं बने रहें। ये मर जायेंगे, साब, ये मर जायेंगे। मै अपाहिज कैसे इनका पेट भरूंगा” दस्सु गिड़गिड़ाता रहा। लेकिन उसकी एक न चली। पुलिस वाले उसको और उसके बच्चों को घर तक छोड़ गये थे।

इस घटना को ठीक से अभी महीना भी नहीं हुआ था कि मुफलिसी की भीषण ज्वाला ने उसके एक बच्चे को अपने आगोश में ले लिया। दूसरे के घरों में काम करके दस्सु की घरवाली जो कुछ भी कमाती थी उससे पूरे परिवार का पेट भरना नामुमकिन था और फिर उस दुधमुहे बच्चे को तो दूध चाहिये था। वही हुआ जिसका ड़र था या फिर यों कहें कि जो स्थिति को मंजूर था। दो दिन तक उसे बुखार रहा लेकिन दस्सु के पास उसकी दवाई के लिए कोई इंतजाम न हो सका और ……..। कुछ दिन पहले जब बेटे गये थे तो भविष्य में उन्हें फिर से देख पाने की उम्मीद तो थी! काश! एसo एसo पीo साब ने उसकी मजबूरी समझी होती….. कल उसकी घरवाली के बगल में तीन बेटे सोये थे लेकिन आज तीसरा बिछोना खाली था। बेमौसम बरसात की तरह आयी वो लम्बी रात और लम्बी होती जा रही थी। सोने का अभिनय जारी था। कप्तान के वाक्य का एक-एक शब्द दस्सु के कानों में गूँज रहा था— “मामला निबट गया है”।

वाकई एक मामला निबट चुका था पर अभी और भी मामले निबटने थे, एक-एक करके। अभी और लम्बी रातें आनी थी, आज की बेमौसम बरसात की तरह।

‘राजीव राज’