Adhyatam

नींद में लगती है परमात्मा में डुबकी

ध्यान या साधना से मृत्यु पर विजय मिल सकती है, तो क्या वही स्थिति निद्रा में नहीं होती है? अगर होती है, तो निद्रा से मृत्यु पर विजय क्यों नहीं मिल सकती।?

पहली बात तो ये समझ लेना जरूरी है कि मृत्यु पर विजय मिल सकती है, इसका यह अर्थ नही है कि मृत्यु है और हम उसे जीत लेंगे। मृत्यु पर विजय मिल सकती है, इसका इतना ही अर्थ है कि मृत्यु नहीं है, ऐसा हम जान लेंगे। मृत्यु का ना होना जान लेना ही मृत्यु पर विजय है। मृत्यु कोई है नहीं जिसे जीत लेना है। मृत्यु नहीं है, ऐसा जानते ही वह जो मृत्यु से हमारी हार चल रही है, बंद हो जाती है। कुछ तो ऐसे शत्रु हैं, जो हैं। और कुछ ऐसे शत्रु हैं जो नहीं हैं, सिर्फ प्रतीत होते हैं। मृत्यु उन शत्रुओं में से है, जो नहीं है और प्रतीत होता है।

इसलिए विजय का अर्थ ऐसा नहीं ले लेना कि कोई मृत्यु कहीं है और उसे हम जीत लेंगे। जैसे कोई आदमी अपनी छाया से लडने लगे और पागल हो जाए। और फिर हम उसे कहें कि गौर से देखो, छाया है ही नही! और वो छाया को देखे और हंसने लगे और जाने कि मैंने छाया को अब जीत लिया। छाया को जीतने का केवल इतना ही अर्थ है कि छाया इतनी भी ना थी कि उससे लडा जाए। जो लडेगा, वह पागल हो जायेगा। जो मृत्य से लडेगा, वह हार जायेगा और जो मृत्यु को जान लेगा, वह जीत जायेगा।

इसका दूसरा मतलब यह भी हुआ कि अगर मृत्यु नहीं है, तो वस्तुत: हम कभी मरते ही नहीं हैं। चाहे हम जानते हों और चाहे ना जानते हों। ऐसा नहीं है कि दुनियां में दो तरह के लोग हैं, एक वो जो मरते हैं और एक वो जो नहीं मरते हैं; ऐसा नहीं है। दुनिया में कोई भी कभी नहीं मरता है। लेकिन दुनिया में दो तरह के लोग हैं, एक वो जो जानते हैं कि नहीं मरते हैं और एक वो जो नहीं जानते हैं। इतना ही फर्क है।

निद्रा में भी हम वहीं पहुंचते हैं, जहां हम ध्यान में पहुंचते हैं, लेकिन फर्क इतना है कि निद्रा में हम बेहोश होते हैं और ध्यान में हम जागृत होते हैं। अगर कोई निद्रा में भी जागृत होकर पहुंच जाए, तो वही हो जायेगा जो ध्यान में होता है। जैसे किसी बगीचे में किसी आदमी को कलोरोफार्म देकर ले जाएं, स्ट्रेचर पर रखकर-बेहोश। स्ट्रेचर पर बेहोश पडा आदमी है, उसको हम बगीचे में ले जाएं। फूल बगीचे में होंगे, कोई बेहोश आदमी की वजह से फूल मिट नहीं जायेंगे, हवाएं होंगी, सुगंध होगी, सूरज निकला होगा, पक्षी गीत गाते होंगे, लेकिन उस आदमी को कुछ भी पता नहीं चलेगा। फिर हम उस बेहोश आदमी को बगीचे में घुमा कर वापिस लौट आएं। वही आदमी होश में आए और हम उससे कहें कि देखा बगीचा? जाना बगीचा? वह कहे, कैसा बगीचा? फिर हम उस आदमी को कहें कि अब तुम होश में चलो। तो वह आदमी कहे, होश में बगीचे में ही पहुंचूंगा न! तो फिर बेहोशी में पहुंचने में और होश में पहुंचने में फर्क क्या है? तो हम उससे कहेंगे, फर्क इतना है कि होश में जान सकेंगे कि कहां पहुंचे, क्या देखा, फूल, सुगंध, पक्षियों के गीत, सुबह का सूरज। बेहोशी में तुम नहीं देख सकोगे। पहुंचोगे तो बेहोशी में भी उतना ही, जितना कि होश में पहुंचे थे। लेकिन बेहोशी में पहुंचा हुआ इंसान ऐसा ही रहता है, जैसे न पहुंचा हो। बेहोशी में पहुंचने का मतलब न पहुंचना ही है।

हम नींद में भी वहीं पहुंचते हैं जहां ध्यान में कोई पहुंचता है। नींद में भी उसी बगीचे में प्रवेश कर जाते हैं, उसी जीवन के बगीचे में, जहां ध्यान में कोई प्रवेश करता है। लेकिन नींद में हम होते है बेहोश। रोज पहुंचते हैं और वापिस लौट आते हैं।

हां इतनी बात पक्की है कि चाहे कोई आदमी बेहोश बगीचे में गया हो, सुबह की ताजी हवाओं ने उसके शरीर को तो छुआ ही होगा, सुगंध उसके नासापुटों तक तो गई ही होगी, पक्षियों के गीत उसके कान तक तो गूंजे ही होंगे। वह नही जान सका, लेकिन बगीचे से बेहोश लौट आने पर भी शायद जगने पर वह कहे कि आज बडा अच्छा लग रहा है, बडी शांति मालुम पड रही है। नींद के बाद सुबह आप रोज कहते हैं कि नींद आ गई तो बडा अच्छा लग रहा है। क्या लग रहा है अच्छा? नींद आने से क्या अच्छा हो गया? जरूर नींद में आप कहीं गए हैं, जहां कुछ हुआ है, लेकिन उसका कोई पता नही। सिर्फ छोटी सी खबर रह गई है पीछे कि अच्छा लग रहा है, सुबह जाग कर अच्छा लग रहा है। तो जो आदमी रात गहरी नींद में पहुंच जाता है, वह सुबह ताजा होकर लौट आता है। वह किसी ताजगी के स्रोत तक गया, लेकिन बेहोश। और जो आदमी रात नहीं सो पाता, वह सुबह और भी थका-मांदा होता है, जितना सांझ को थका-मांदा नहीं था। और अगर एक आदमी कुछ दिन तक न सो पाए, तो जीवन दूभर हो जाता है, क्योंकि जीवन के स्रोत से उसके संबंध विछिन्न हो जाते हैं। वह वहां तक नहीं पहुंच पाता, जहां तक पहुंचना अत्यंत जरूरी है।