प्रत्येक इंसान सोचता है कि हम कर्म या भाग्य में किसे मानें।
ओशो कहते हैं कि ‘किसी को भी नहीं, कुछ भी मानने की जरूरत नहीं है। जानने-पहचानने की आवश्यकता है। जानो और समझो, असल में दोनों अलग-अलग बातें नहीं हैं।हम कोई कर्म करते हैं, उसका परिणाम आता है यह तो सब जानते हैं। मैं आग में हाथ डालूंगा, मेरा हाथ जलेगा। कर्म का फल आएगा। इसे तो कोई सिद्ध करने की जरूरत नहीं।
भाग्य हम कहते हैं सामुहिक कर्म के परिणाम को; क्योंकि इस दुनिया में अकेला मैं ही तो नहीं हूँ, और भी लाखों लोग हैं। व्यक्तियों के अलावा और विराट जगत है, पशु-पक्षी हैं, प्रकृति के खेल हैं। उसमें बहुत सी गतिविधियाँ चल रही हैं, बहुत कर्म हो रहे हैं। उन सबके कर्मों का जो सामुहिक परिणाम है उसका नाम भाग्य है। तो कर्म के सिद्धांत में, मैं कोई दुश्मनी नहीं देखता। दोनों एक-दूसरे के विपरीत नही हैं’।
मैंने सुना है- एक बार मुल्ला नसरुदीन जा रहा था बाज़ार, सब्जी खरीदने के लिए, मस्जिद के पास से गुजर रहा था। मस्जिद का जो मौलवी था, वह मस्जिद की मीनार पर चढ़ा हुआ था, आज़ान देने के लिए। जब नसरुदीन वहाँ से गुजर रहा था, ठीक उसी समय, मौलवी ऊपर से गिरा। नसरुदीन के ऊपर आकर टपका। मौलवी का तो कुछ न हुआ, नसरुदीन की पैर की हड्डी टूट गई। नसरुदीन अस्पताल में भर्ती हुआ। लोग मिलने के लिए आए, पूछने के लिए, कैसे हो मुल्ला? यह सब कैसे हुआ? ज्यादा तकलीफ तो नहीं हो रही?
नसरुदीन ने कहा कि ‘तकलीफ बहुत ज्यादा हो रही है। हड्डी का दर्द तो डॉक्टर की दवा और पल्सतर बंधने से ठीक हो गया। मगर हड्डी टूटने से अधिक कष्ट मेरी धारणा टूटने से हो रहा है। मैं अब तक मानता था कि अपने-अपने किए का फल सबको भोगना पड़ता है। लेकिन यह सिद्धांत गलत निकला। कर्म किसी और ने किया परिणाम हमको भुगतना पड़ा। न हम मस्जिद गए थे, न हम आज़ान देने चढ़े थे मीनार पर। हम तो अपनी बीवी की आज्ञानुसार सब्जी खरीदने बाज़ार जा रहे थे। चढ़ा कोई मीनार पे, टाँग किसी और की टूटी’।
जिंदगी बडी जटिल है और सामुहिक कर्मों के जो परिणाम आयेंगे, वे भी हमे भोगने पड़ेंगे।
समझो कि अभी हम यहाँ बैठे हैं, परमात्मा की तलाश में, ध्यान, समाधि लगाने की तैयारी कर रहे हैं। हो सकता है कोई आतंकवादी आकर बम गिरा दे और हमारी कब्र वाली समाधि बनवाने का इंतजाम कर दे। यद्द्पि हमारा उससे कोई लेना-देना न था। शायद वह हमे पहचानता तक न था। मगर वे लोग नाराज़ हैं, सरकार से, न्याय व्यवस्था से बदला ले रहे हैं। वे अपनी दहशत दिखाने के लिए हर किसी को मार-काट रहे हैं। सीधा हमारा कर्म तो नहीं है, लेकिन एक समूह का, समाज का, देश का, विश्व का, बहुत से लोगों के कर्मों के जाल का मिला-जुला परिणाम भी हमें भोगना पड़ेगा। बम विस्फोट होगा अगर यहाँ, तो हम यह नहीं कह सकते कि हमारा इसमें कोई हाथ नहीं है, हम नहीं मरेंगे। हमें भी उसमें मरना होगा। कोई गुस्से में है। गुस्सा किसी और पर है। उसका परिणाम आपको भुगतना होगा। हमने पीछे जो कर्म किए हैं जिन्हें हम भूल भी गए, उनके भी परिणाम हमें भुगतने होंगे। कभी बीज बोए थे, कभी फल आयेंगे। पुरानी भाषा में इसे भाग्य पुकारा जाता है। विगत कर्म, सामुहिक कर्म एवं प्रकृति में घट रही घटनाओं के मिले-जुले परिणाम को किस्मत कहा जाता है।
अत: भाग्य और कर्म के सिद्धांत में, मैं कोई भी विरोध नहीं देखता।
कर्म हम कहते हैं- एक व्यक्ति के द्वारा किए गए कार्य को और भाग्य हम कहते हैं- पूरी सृष्टि के द्वारा किए गए कार्य को। व्यक्ति सृष्टि का अंग है और सृष्टि व्यक्तियों का एक्सटैंशन, विस्तार है। सब चीज़ें संयुक्त हैं। भाग्यवाद और कर्मवाद अलग-अलग नहीं हैं।
दयानिधि प्रभु ने किसी की बुरी किस्मत क्यों लिखी?
ईश्वर ने यह दुनिया बनाई, मनुष्य जाति को बनाया, फिर करुणावान ईश्वर अपनी ही संतानों को अर्थात हमें इतना दुख क्यों देता है? क्या वह करुणामय न होकर कठोर पाषाण–हृदयी है?
जगाने के लिए। यदि सुख स्वप्न चल रहा है तो हम सदा-सदा सोए ही रहेंगे। यदि जीवन में दुख ना हो तो धर्म की भी कोई जगह न रह जायेगी। दुख हमारा दुश्मन नहीं है। दुख हमें चौंकाता है, हमें जगाता है, हमारे भीतर विवेक और प्रतिभा को पैदा करता है, उस दुख से मुक्त होने का हम उपाय ढ़ूंढ़ लेते हैं उसी से समस्त विकास होता है। पशुओं ने, पक्षियों ने दुख से मुक्त होने का उपाय नहीं किया। वे उसके प्रति जागरूक नहीं हैं इसलिए उनका कोई विकास भी नहीं हो पाया। मनुष्य जाति अकेली विकसित हो रही है। इसकी वजह? इसका कारण है वह सुख-दुख का संयोग, वे पीड़ाएं, वे कष्ट। यदि वे न होते तो हमारी बुद्धि विकसित भी न होती। हम भी जानवरों की तरह ही जीते। इसलिए दुखों को भी अपना शत्रु न समझना, वे हमें जगाने के लिए हैं, हमारी विकास की प्रक्रिया का अनिवार्य हिस्सा हैं। और जब तुम इस भांति देखोगे तो ईश्वर को धन्यवाद दोगे। अभी तुम्हारे प्रश्न में शिकायत छुपी है, नाराजगी है। काश, तुम दुख की इस गुणवत्ता को देख पाओ, तब तुम अस्तित्व के प्रति धन्यवाद से भरोगे, जिंदगी की सारी तकलीफों के लिए भी कहोगे- हे प्रभु! क्या मजेदार कष्ट दिए, वाह रे दयालु! तेरा लाख-लाख शुक्रिया!!
माँ काली की अदभुत प्रतिमा देखी! शिव के सीने पर पैर रखे हुए, हाथ में हथियार, गले में नरमुंडों की माला, खुंखार जीभ…हिम्मतवर रहे हिंदु जिन्होंने साक्षात मौत के पैगाम वाली मूर्ति को जगत जननी माँ कहकर पुकारा।
जन्म और मृत्यु एक ही ड़ंडे के दो छोर हैं। जीवन का आरम्भ और अंत सूर्योदय और सूर्यास्त के समान है। दोनों का स्त्रोत एक ही है। पश्चिम के धर्मों ने ईश्वर और शैतान के द्वंध में परम सत्ता को विभाजित कर दिया। भारत के अद्वैतवादी, सत्य के अनुभवी मुनि/ऋषियों ने शुभ और अशुभ के लिए उत्तरदायी एक ही परमात्मा को जाना।
ओशो