सरवाईकल स्पोंडेलाईटिस गर्दन व रीढ़ की बिमारी है। इस रोग में गर्दन को पीछे की तरफ ले जाने, घुमाने और आगे की तरफ आने में हमेशा दर्द बना रहता है। दर्द में कभी-कभी अचानक तीव्रता व अचानक मन्दता आ जाती है। इस रोग में रीढ़ की कशेरुकाएं सख्त हो जाती हैं, फलस्वरूप गर्दन को पीछे या आगे की तरफ ले जाने पर उन में खिचाव पैदा हो जाता है और वे दर्द करने लगती हैं। दर्द बढ़ते-बढ़ते कन्धों तक तथा रीढ़ के निचले हिस्से तक भी पहुंच जाता है। सरवाईकल स्पोंडेलाईटिस का दर्द तंत्रिका तंतुओं को प्रभावित करके सिर दर्द, तनाव, ड़िप्रैशन तथा कभी-कभी चिड़चिड़ाहट जैसी स्थिति भी पैदा कर देता है। गर्दन के पीछे वाले हिस्से में रीढ़ की जहां शुरुआत होती है, वहां से सरवाईकल नर्व शुरु होती है। जब इस नर्व व कशेरुका को लम्बे समय तक एक ही स्थिति में रखा जाता है तो सरवाईकल स्पोंडेलाईटिस होने का भय रहता है।
कारण :-
अंग स्थिति : लम्बे समय तक गर्दन व रीढ़ को आगे की तरफ झुका कर बैठना, खासकर कम्पयुटर पर काम करते या पढ़ते समय।
तकिया का प्रयोग : सोते समय मोटे तकिया व अधिक मोटे गद्दे का प्रयोग।
मोटापा : अधिक वज़न के कारण चलने में गर्दन व रीढ़ को आगे की तरफ झुका कर चलना।
व्यायाम की कमी : जब रीढ़ व गर्दन को पूरी तरह व्यायाम नही मिल पाता तो यह रोग हो सकता है।
कब्ज : मल का दबाव गर्दन व रीढ़ की कशेरुकाओं को क्षतिग्रस्त करता है तथा उसका ऊपरी उफान, ऊपरी ग्रीवा को प्रभावित कर दर्द पैदा करता है।
सरवाईकल स्पोंडेलाईटिस ठीक होने वाला रोग है, चूंकि यह रोग गलत अंग स्थिति व गलत जीवन शैली का परिणाम है, अत: कुछ उपचारों के बाद सरवाईकल स्पोंडेलाईटिस को पूरी तरह ठीक किया जा सकता है।
स्पोंडेलाईटिस ठीक करने के लिए योग व प्राकृतिक चिकित्सा को व्यवहार में पूरी तरह अपनाना होगा।
व्यायाम :
सरवाईकल स्पोंडेलाईटिस रोग में ऐसे व्यायाम व आसनों का चयन करें जिनमें गर्दन का खिचाव ऊपर की तरफ आता हो व रीढ़ का दबाव बाहर की ओर जाता हो।
भुजंगासन :
भुजंगासन का नियमित अभ्यास रीढ़ व गर्दन के दर्द से मुक्ति दिला कर सरवाईकल नर्व को लचीला बनाता है।
अर्धचक्रासन :
सीधे लेट जाएं, पैरों को मोड़ कर नितंब के पास लाएं व सांस भरते हुए कमर से कंधे तक का हिस्सा ऊपर उठाएं, फिर सांस छोड़ते हुए नीचे आएं।
पवन मुक्त आसन :
सीधे लेट जाएं, सांस छोडते हुए घुटनों को मोड़ कर सिर से लगाएं, दूसरा पैर सीधा करें, फिर पैर बदल कर वैसा ही करें।
हंसासन :
दोनों हाथों को कमर पर रख कर नाभि के आगे का हिस्सा श्वास भरते हुए यथा संभव ऊपर उठाएं।
‘प्राकृतिक चिकित्सक डाo वीरेन्द्र’