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बदलती दुनिया – बदलते इंसान

आज के इस आधुनिक युग में सब कुछ बदल रहा है। इंसान की जिंदगी की रफ्तार तेज होती जा रही है और अपने और अपनों के लिए वक्त कम। ऐसा लगता है कि हम सब एक कभी ना खत्म होने वाले मुकाबले का हिस्सा हैं। मंजिल क्या है- कोई बता सकता है?

एक वक्त था जब इंटरनैट नहीं था, स्मार्ट सिर्फ इंसान हुआ करते थे न कि फोन और सोशल मीड़िया। मिलनसार लोगों को कहा जाता था, न कि मीड़िया को। किसी करीबी को बधाई देनी होती थी या उसकी याद आती थी तब हम उनसे पत्रों के माध्यम से सम्पर्क करते थे और आज देखिए पूरा ड़ाक-विभाग बंद होने की कगार पर है।

इस आधुनिक बदलाव ने जिंदगी को जरूर आसान बनाया है लेकिन कहीं न कहीं ये जीवन की छोटी-छोटी खुशियों को नदारद कर रही हैं।

चलिए पहले बात करते हैं सोशल मीड़िया की— सोशल मीड़िया का चलन पिछले कुछ सालों में ऐसा बढ़ा है कि इंसान को ही एंटी-सोशल बना रहा है। वार्तालाप करना तो जैसे आज की युवा पीढ़ी को आता ही नहीं। सुबह से शाम वो बस अपने स्मार्ट फोन से ही जुड़े रहते हैं। हजारों मील दूर उनके दोस्त ने नाश्ते में क्या खाया वो पता है लेकिन घर पर क्या बनने वाला है उसका पता नहीं। ऐसी आदते सेहत के लिहाज से भी अच्छी नहीं हैं।

जिधर देखो बच्चे सर झुकाए चल रहे हैं। नहीं-नहीं शर्म से नहीं उनकी आंखें गढ़ी हैं फोन की छोटी सी स्क्रीन पर। ट्विट्टर का तो क्या कहना। नामी-गिनामी लोग इसका इस्तेमाल करते हैं अपना प्रचार करने के लिए और हम नासमझ इसे आज का फैशन समझ बैठे। कम अक्षरों में बहुत कुछ कहने को कहतें है ट्विट्टर Twitter – तो हम किसी से कम नहीं। लिखना भी भूलते जा रहे हैं और काट-पीट कर कह दिया। ये बात तो पीछे रह गई कि ट्विट्टर के नामचीन उपभोग्ता तो अपनी ब्रैंड़ वैल्यु बढ़ा रहे हैं और हम अगर कुछ बढ़ा रहे हैं तो वो है – अपने फोन का बिल।

स्मार्ट फोन ने कैमरा क्या अपने साथ जोड़ दिया – खाने से ज्यादा तो हम अब खाने की तस्वीर खींचने में रुचि रखते हैं। इसमें काम आसान हुआ किसी का तो वो हैं रैस्टॉरैंट के मालिक का। अच्छे, स्वाद से ज्यादा अब जरूरत है सिर्फ खाने के सुंदर रूप की । भले खाना ठंड़ा क्यों न हो जाए, हम तो उसकी तस्वीर खींच अपने सोशल मीड़िया पेज पर पोस्ट करेंगे। जब हम घर के बाहर जाते हैं तब भी अपने घरवालों और दोस्तों से बातें शेयर करने की बजाय हम फेसबुक पर शेयर करने में रुचि रखते हैं। जरा याद कीजिए जब पिछली बार रैस्टोरैंट गए थे, आपने अपने खाने और शाम की चर्चा वर्चुअल दुनिया में ज्यादा की थी या असली दुनिया में? क्या स्मार्ट फोन स्मार्ट की बजाय कहीं हमे ड़म्ब (dumb) तो नहीं बना रहे? क्या ये सिर्फ एक महंगा खिलोना रह कर तो सीमित नहीं होते जा रहे?

आज अगर जरूरत है किसी चीज की तो वो है संतुलन। स्कूलों को जहाँ ये सुनिश्चित करना चाहिए कि बच्चे कम्प्युटर के बारे में सब जानें वहीं खेल-कूद और कला और संस्कृति से भी जुड़े रहें। इन चीज़ों में तकनीक का इस्तेमाल कैसे किया जा सकता है। इस अनुभव को बच्चों के लिए और कैसे दिलचस्प बनाया जा सकता है। पुस्कालयों ने इस राह में एक बड़ा कदम बढ़ाया है। आज कईं पुस्तकें ई-रीड़र और इलैकट्रोनिक रूप में भी उपलब्ध हैं।

माँ-बाप पर ये भी जिम्म्दारी पड़ती है कि वो अपने बच्चों को इस रूप से बड़ा करें कि वो टी-वी और कम्प्युटर पर ही निर्भर न रहें अपना वक्त बिताने के लिए। उनके शौंक में खेलकूद, किताबे पढना और अपनों से बातें करना जरूर शामिल होना चाहिए। आप सोचेंगे अपनों से बाते करना क्या अब ये शौंक बन गया है? जरा सोचिए तो सही कि आपके अपनों ने आप से आखिरी बार कब दिल खोल कर बात की थी?

जमाना युवा शक्ति का है, आज की पीढी मेहनती और हिम्मती है। जरूरत है तो उनको राह दिखाने की।

युवा और तकनीक सही ताल-मेल बना लें, तो भविष्य सबके लिए और उज्जवल हो जायेगा।

अपूर्व शुक्ला