कर्म से तय नहीं होता, भीतर की भाव दशा से तय होता है। ऊपर-ऊपर से कर्म एक जैसे दिखाई पड़ते हैं, किंतु भीतर हमारी भावदशा, हमारा इरादा क्या है? हमारी दृष्टि क्या है? उस पर निर्भर होगा। हमने किस चैतन्य की अवस्था से वह कर्म किया, उससे निर्धारित होगा कि वह पाप है या पुण्य। ऊपर-ऊपर से तय नहीं किया जा सकता कि ऐसा-ऐसा करना पाप है कि वैसा-वैसा करना पुण्य है।
कल ही रात को एक मित्र से चर्चा के दौरान मैं नसरुदीन का एक बडा मजेदार किस्सा सुन रहा था। नसरुदीन जिस देश में रहता था, बगदाद शरीफ में; वहाँ के बादशाह से उसकी मित्रता थी। एक दिन बादशाह ने कहा, ‘नसरुदीन मैंने तय किया है जो भी आदमी झूठ बोलेगा उसको फांसी पर चढ़ा दिया जायेगा ताकि हमारे देश में सारे पुण्यात्मा हो जाएं, महात्मा हो जाएं, सत्यावादी हो जाएं। झूठ बोलने वाले को छोटी-मोटी नहीं, सीधी फांसी की सजा मिलेगी’। नसरुदीन ने सम्राट से कहा कि ऐसा सम्भव नहीं है क्योंकि यह तय करना बहुत मुश्किल है क्या सत्य है और क्या असत्य है?
दूसरे दिन सुबह की बात है, सम्राट अपने बगीचे में टहल रहा था, नसरुदीन उसके बगीचे के बाहर से गुजरा। नमस्कार की उसने। सम्राट ने उससे पूछा नसरुदीन कहाँ जा रहे हो सुबह-सुबह। नसरुदीन ने कहा कि हुजूर! फांसी पर चढ़ने पर जा रहा हूँ। सम्राट ने कहा कि सारी कायनात जानती है कि तुम मेरे अजीज दोस्त हो, तुम्हें कौन फांसी देगा? नसरुदीन बोला कि इसका मतलब हुआ कि मैं झूठ बोलता हूँ और आपने कानून बना दिया है कि झूठ बोलने वाले को फांसी पर चढ़ायेंगे तो अब मुझे सजा-ए-मौत मिलनी ही चाहिए। सम्राट ने कहा तुम तो सच बोलने वाले आदमी हो, तुमको क्यों फांसी देंगे? नसरुदीन ने फरमाया कि हुजूर, फिर अभी जो मैंने स्टेटमैंट दिया है कि मैं फांसी चढ़ने जा रहा हूं। क्या मैं झूठ बोला? अगर मैं झूठ बोला तो मुझे चढ़ाओ फांसी पर लेकिन याद रखना, अगर मुझे फांसी पर चढ़ाया तो मेरा जो वक्तव्य था, यह सत्य सिद्ध हो जायेगा। मैंने यही तो कहा था कि मैं फांसी पर चढ़ने जा रहा हूं, तुमने मुझे चढ़ा दिया तो तुमने एक सत्यवादी को फांसी पर चढ़ाया और यदि तुमने मुझे छोड दिया, फांसी पर न चढ़ाया तब तुमने एक झूठे आदमी को छोड़ दिया क्योंकि मैं कह रहा था कि फांसी पर चढ़ने जा रहा हूं और तुमने मुझे छोड दिया। फांसी तो मुझे लगी नहीं तो यह वचन तो झूठा निकला। अब बताओ क्या करोगे? बेचारा बादशाह बड़ी मुश्किल में पड़ गया।
नसरुदीन ने कहा, मैं आपको यही बताना चाह रहा था कि सत्य और असत्य, नैतिकता और अनैतिकता, पाप और पुण्य तय करना इतना आसान मामला नहीं है जो ऊपर-ऊपर से तय किया जा सके। वही बात मैं आपसे कहना चाहुंगा पाप, कर्म और पुण्य कर्म की परिभाषा, ऊपर से तय नहीं होती, भीतर से तय होती है। यदि तुम कोई कर्म होशपूर्वक कर रहे हो, प्रेमपूर्वक करुणा भाव से कर रहे हो तो वह पुण्य है। इसके विपरीत अगर तुम किसी का नुकसान करने के इरादे से, किसी को हानि पहुंचाने के लिए, किसी को दुख देने के लिए, मूर्छा में कुछ कर रहे हो तो वह पाप है।
एक उदहारण से समझो। एक छोटा बच्चा है, वह देखता है एक दीपक की लौ टिमटिमाती। आकर्षित होता है लौ की तरफ, पकडने जाता है उसे। एक अजनबी स्त्री वहाँ से गुजरती है, देखती है इस दृष्य को लेकिन चुपचाप वहाँ से मुस्कराती हुई निकल जाती है। फिर एक दूसरी महिला वहाँ से गुजरती है, वह इस बच्चे की माँ है। बच्चे से प्रेम करती है। वह बच्चे को मना करती है कि बेटा दीपक की लौ को मत पकड़ना, जल जाओगे। बेटा नहीं मानता, फिर भी पकडने की कोशिश करता है, तब माँ उसे जोर से ड़ांटती है, चिल्लाती है। अगर वह तब भी न माने तो माँ उसको एक चांटा मारती है और इसको दीपक की लौ नही पकड़ने देती।
आप क्या कहेंगे, यह ड़ाँटना, ड़पटना, चांटा मारना, यह हिंसा का कृत्य पाप है? ऊपरी कर्म से तय नहीं होगा, हमे देखना होगा उस महिला के भीतर इरादा क्या है? उसका इरादा है बच्चे को बचाना, वह जल न जाए, इसलिए उसको चांटा मारा, इसलिए उस पर चिल्लाई, गुस्सा हुई। इसका क्रोध, इसकी हिंसा भी किसी करुणा से प्रेरित है और इसलिए वह पुण्य है। इसके ह्रदय में प्रेम छुपा है और पहली स्त्री जो चुपचाप वहाँ से गुजर गई, उस दृष्य को देखते हुए उसने कुछ भी न कहा, बच्चे को रोकने की कोशिश न की। देखने में ऐसा लगता है: कितनी दयालु स्त्री, इसने बच्चे को नहीं मारा और यह दुष्ट महिला देखो, बच्चे को पीट रही है, ड़ांट रही है। बच्चे की स्वतंत्रता में टांग अड़ा रही है। लेकिन ऊपर से तय नहीं होता, भीतर से तय होगा। पहली स्त्री संवेदनहीन व कठोर है और दूसरी स्त्री प्रेमपूर्ण और करुणावान है। कृत्य गौण और बाहरी घटना है, वस्त्र तुल्य है, भीतर जांचना होगा, इरादा क्या है? वह आत्मा जैसा है।
क्रोध सदा बुरा नहीं होता और दया हमेशा अच्छी नहीं होती।
ओशो